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Wednesday 29 July, 2009

रामबोला तुलसीदास


प्रभु श्रीराम की कथा को जन-सुलभ बनाने के लिए तुलसीदास ने रामचरितमानस की रचना की। इसके माध्यम से उन्होंने संपूर्ण मानव जाति को कई संदेश दिए। गोस्वामी के अन्य प्रामाणिक ग्रंथों में रामलला नहछू,रामाज्ञाप्रश्न, जानकी मंगल, पार्वती मंगल, गीतावली,कृष्णगीतावली,विनय पत्रिका, बरवै रामायण, दोहावली,कवितावली,हनुमान बाहुक,वैराग्य संदीपनीआदि प्रमुख हैं। हनुमान चालीसा के रचयिता भी तुलसीदास ही हैं। उनका जन्म वर्ष १४९७ चित्रकूट के राजापुर में हुआ था।

इनके पिता आत्माराम और माता थीं हुलसी थीं। किंवदंती है कि नौ महीने के बजाय तुलसी मां के गर्भ में बारह माह रहे। जन्म लेते ही उनके मुख से राम शब्द निकला । कहते हैं कि उनकी माता ने किसी अनिष्ट की आशंका से नवजात तुलसी को अपनी दासी चुनियांके साथ उसकी ससुराल भेज दिया। अगले ही दिन उनकी मां की मृत्यु हो गई। तुलसी जब मात्र 6वर्ष के थे, तो चुनियांका भी देहांत हो गया। मान्यता है कि भगवान शंकर की प्रेरणा से स्वामी नरहरिदास ने बालक तुलसी को ढूंढ निकाला और उनका नाम रामबोलारख दिया। तुलसीदास का विवाह रत्नावली के साथ हुआ

एक घटनाक्रम में रत्नावली ने अपनी पति को धिक्कारा, जिससे वे प्रभु श्रीराम की भक्ति की ओर उन्मुख हो गए। गुण-अवगुण की व्याख्या गोस्वामी तुलसीदास ने राम की कथा जन-सुलभ बनाने के लिए रामचरितमानस की रचना की। इसमें उन्होंने सामान्य आदमी के गुण-अवगुण की व्याख्या बडे ही सुंदर शब्दों में की है।बालकांड में एक दोहा है-

साधु चरित सुभचरित कपासू।

निसरबिसदगुनमयफल जासू।

जो सहिदुख परछिद्रदुरावा।

बंदनीयजेहिंजग जस पावा।।

अर्थात सज्जन पुरुषों का चरित्र कपास के समान नीरस, लेकिन गुणों से भरपूर होता है। जिस प्रकार कपास से बना धागा सुई के छेद को स्वयं से ढककर वस्त्र तैयार करता है, उसी प्रकार संत दूसरों के छिद्रों (दोषों) को ढकने के लिए स्वयं अपार दुख सहते हैं। इसलिए ऐसे पुरुष संसार में वंदनीय और यशस्वी होते हैं। उन्होंने सत्संगति की महत्ता पर भी बल दिया है। वे मानते हैं कि राम की कृपा के बिना व्यक्ति को सत्संगति का लाभ नहीं मिल सकता है-

बिनुसत्संग विवेक न होई। राम कृपा बिन सुलभ न सोई। -मनोविज्ञान की परख गोस्वामी तुलसीदास की प्रतिभा छोटी उम्र से ही दिखने लगी थी। उनकी कवित्व क्षमता से कई समकालीन कवि ईष्र्या करने लगे थे। ऐसे लोगों के संदर्भ में तुलसी ने जो व्याख्या की है, वह आज के समय में भी सटीक बैठती है।

वे कहते हैं-जिन कबित केहिलाग न नीका।सरस होउअथवा अति फीका। जे पर भनितिसुनतहरषाही।तेबर पुरुष बहुत जग नाही।अपनी कविता, चाहे रसपूर्णहो या अत्यंत फीकी, किसे अच्छी नहीं लगती। लेकिन जो लोग दूसरों की रचना सुनकर प्रसन्न होते हों, ऐसे श्रेष्ठ पुरुष जगत में अधिक नहीं हैं।

अरण्यकांडमें शूर्पणखाके माध्यम से वे लिखते हैं कि शत्रु, रोग, अग्नि, पाप, स्वामी और सर्प को कभी छोटा नहीं समझना चाहिए। इसी प्रकार सुंदरकांडमें एक स्थान पर तुलसी लिखते हैं कि मंत्री, वैद्य और गुरु लाभ की आशा से आपके लिए हितकारी बात न करें, तो राज्य, शरीर और धर्म, इन तीनों का नाश हो जाता है। समर्थ की पहचान वे कहते हैं-शुभ अरुअशुभ सलिल सब बहई।

सुरसईकोउअपुनीतन कहई।समरथकहुंनहिंदोषुगोसाई। रबिपावक सुरसरिकी नाई।

गंगा में शुभ और अशुभ सभी प्रकार का जल बहता है, लेकिन गंगा को कोई अपवित्र नहीं कह पाता है। सूर्य, अग्नि और गंगा के समान, जो व्यक्ति साम‌र्थ्यवान होते हैं, उनके दोषों पर कोई उंगली नहीं उठा पाता है। प्रेम के भूखे राम तुलसी ने अपना सारा जीवन श्रीराम की भक्ति में बिता दिया। वे अयोध्याकांडमें लिखते हैं-रामहि केवल प्रेमुपिआरा।जानिलेउजो जान निहारा। अर्थात श्रीराम को मात्र प्रेम प्यारा है, जो जानना चाहता है, वह जान ले। भक्त की सच्ची पुकार पर भगवान उनके पास दौडे चले आते हैं। तुलसीदास पुराण और वेदों के माध्यम से लोगों से कहते हैं कि सुबुद्धिऔर कुबुद्धि का वास सभी लोगों के हृदय में होता है। जहां सुबुद्धिहै, वहीं सुख का वास है और जहां कुबुद्धि है, वहां विपत्ति आनी निश्चित है। इतने वर्षो बाद आज भी तुलसी के संदेश प्रासंगिक हैं।

जुगनू खान